Tuesday 4 February 2020

पंचकर्म में छिपा है सभी रोगों का जड़ से इलाज

वर्तमान में लोगों की दिनचर्या व्यस्त से व्यस्ततम होती जा रही है, जिसका परिणाम हो रहा है – रात में देर से सोना, सुबह देर से उठना, वर्जिश योग आदि से दूरी बनाए रखना, टीवी के सामने घंटों चिपके रहना, बाहर का उठ पटांग खाना – पीना, चाय कॉफी की भरमार इन सारे कारणों से हमारे शरीर का पाचन बिगड़ जाता है और जिसका कारण होता है पोषक तत्वों का अभाव ।
आयुर्वेद के अनुसार दोषो को साम्यवास्था मे लेकर आना ही आरोग्य है,इसके लिये आयुर्वेद में औषधि आहार विहार के साथ ही पंचकर्म का भी विधान है।
पंचकर्म एक ऐसी पद्धति है जिसमें बढ़े हुए दोषों यानी वात पित्त कफ को शरीर से निकाल दिया जाता है और जिन दोषों की कमी हो उन्हे उचित आहार औषध से शरीर में बढ़ाया जाता है जिससे शरीर में आरोग्य की स्थापना हो इसिलिए पंचकर्म को आयुर्वेद का गहना भी कहा जाता है । पंचकर्म में मुख्य रूप से तीन कर्म किए जाते हैं पूर्व कर्म, प्रधान कर्म, पश्चात कर्म ।


पूर्व कर्म
मानव शरीर में सारे दोष विचरण करते हैं मुख्य रूप से तीन दोषों से हमारा शरीर बना होता है वात पित्त और कफ इन्हीं दोषों को शरीर से निकालने से पहले उभारना बहुत जरूरी होता है इन दोषों को उभारने के लिए जो प्रक्रिया की जाती हैं उन्हें पूर्व कर्म कहा जाता है पूर्व कर्म में मुख्य रूप से दो कर्म होते हैं स्नेहन और स्वेदन
स्नेहन से तात्पर्य ओयलिंग से होता है । स्नेहन मुख्य रूप से दो तरह से किया जाता है, एक प्रकार जिसमें स्नेह यानी तेल या घृत की उचित मात्रा रोगी को पिलायी जाती है। स्नेहन के दूसरे प्रकार मे तेल या घृत से पूरे शरीर में अभ्यंग या मालिश की जाती है । स्नेहन के बाद स्वेदन किया जाता है, जिसे आसन शब्दों में सेंक देना समझा जा सकता है ।
स्वेदन के कई प्रकार है जैसे, नाड़ी स्वेद, सर्वान्ग स्वेद, रूक्ष स्वेद ।
तेल से भली प्रकार शरीर की मालिश करने के बाद अच्छे से गर्म तरल,वस्तु या गर्म और औषधियों से शरीर की सिकाई करने को स्नेहन और स्वेदन कहते हैं यही पंचकर्म से पहले किए जाने वाले पूर्व कर्म है इनके करने से शरीर के जोड़ खुलते हैं तथा औषधियां अधिक कारगर होती हैं।
प्रधान कर्म
स्नेहन स्वेदन से खुले हुए शरीर पर प्रधान कर्म किया जाता है प्रधान कर्मी मुख्य रूप से पंचकर्म है इसके अंतर्गत पांच कर्म आते हैं जैसे वमन, विरेचन, आस्था पन अनुवासन वस्ति, शिरो विरेचन और रक्तमोक्षण आदि ।
1. वमन – वमन जैसे के नाम से ही ज्ञात है इसमें औषधियों का पान करा कर उल्टियां करवाई जाती हैं, जब कभी किसी मनुष्य के शरीर में कफ की मात्रा सामान्य से अधिक बढ़ जाती है तब उसे कफ जनित रोगों का सामना करना पड़ता है, यह रोग हैं ज्यादा समय तक चलने वाली सर्दी खांसी श्वास रोग मेदो रोग यानी मोटापा आलस्य, अजीर्ण, अपच, अरुचि, रक्तरोग, इन लोगों में रोगी को कफ बढ़ाने वाली और कफ निकालने वाली औषधियों का काढ़ा बनाकर पान कराया जाता है उसके बाद उसे वमन करवाकर उसके कोष्ठ को शुद्ध किया जाता है।

विशेष – हृदय रोग प्लीहा गुल्म अष्ठीला स्वर्भेद शिर: शूल तिमिर शंखक कर्णशूल, नेत्रशूल उदावर्त मुत्राघात से पीड़ित रोगियों को वमन नहीं कराना चाहिए ।
2. विरेचन :- विरेचन में विरेचन करवाने वाली औषधियों को रोगी को पिलाकर उसके कोष्ठ की शुद्धि की जाती है ।
विरेचन मुख्य रूप से पित्त के शमन हेतु किया जाता है । कुष्ठ, ज्वर, प्रमेह, भगंदर, उदर रोग और प्लीहा रोग और ब्रधन, गलगंड ग्रंथि विसूचिका अल्सर मुत्रघात क्रीमी कोस्ट विसर्प पांडू सिर शूल त्रिशूल उदावत नेत्र में जलन मुख में दाह हृदय रोग, व्यंग नीलिका नेत्र नासिका व मुख से स्त्राव होने पर हलीमक स्वास् कास कामला अपस्मार उन्माद योनि दोष शुक्र दोष में तिमिर अरोचक अविपाक वमन, शोध उदर रोग विस्फोटक रोग से पीड़ित व्यक्तियों को विरेचन देना चाहिए । जिस प्रकार अग्नि से जलते हुए घर में जब अग्नि शांत हो जाती है तो घर का जलना भी बंद हो जाता है उसी प्रकार विरेचन द्वारा पित्त के निकल जाने से उपर्युक्त रोग शीघ्र शांत हो जाते हैं।
विशेष :- मंदाग्नि अजीर्ण नूतन ज्वर मदत्यय अध्मान अंत: शल्य,आघात पीड़ित अति दारुण कोष्ठ, वमन के अयोग्य प्रकरण में क्षत से लेकर गर्भिणी तक जो व्यक्ति बताए गए हैं वह विरेचन के योग्य नहीं होते हैं ।
3. वस्ति :- जिस प्रकार कफ के हरण के लिए वमन, पित्त के हरण के लिए विरेचन उसी प्रकार वात के हरण के लिए बस्ती का उपयोग हमारे आचार्यों ने बताया है । बस्ती मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है आस्था पन बस्ती या निरूहा बस्ती जिसे रुक्ष बस्ती भी कहा जाता है यह मुख्य रूप से औषधियों के क्वाथ से दी जाती है । दूसरा प्रकार अनुवासन बस्ती का है जो स्निग्ध बस्ती कही जाती है यह मुख्य रूप से तेल घी दूध इत्यादि से दी जाती है ।

4. शिरोधारा :- यह भी पंचकर्म का एक प्रकार है जिसमें औषधियों की मात्रा को तरल में उबालकर काढ़ा तैयार किया जाता है उसके बाद इस काढ़े को ठंडा कर रोगी के सिर में दोनों भ्रू मध्य में बूंद – बूंद टपका कर औषधि गिराई जाती है जिसे शिरोधारा कहते हैं यह मुख्य रूप से सिर में पाए जाने वाले विभिन्न विकारों जैसे शिर शूल अधकपारी हाई ब्लड प्रेशर अनिद्रा इनसोम्निया इत्यादि रोगों में दिया जाता है ।
5. रक्तमोक्षण :- रक्त जनित अशुद्धि के कारण उत्पन्न होने वाले रक्तगत रोग की चिकित्सा के लिए रक्तमोक्षण प्रयोग में लाया जाता है यह एक आयुर्वेद की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है । रक्त से उत्पन्न होने वाली विभिन्न तरह की प्रॉब्लम का ट्रीटमेंट किया जाता हैं । इस पद्धति से अन्य रक्त जनित रोगों में भी रक्तमोक्षण का प्रयोग किया जाता है ।
यह मुख्य रूप से 5 प्रधान कर्म कहे जाते हैं जो पंचकर्म के अंतर्गत आते हैं पर पंचकर्म पूरा होता है, पश्चात कर्म के द्वारा । जब शरीर से बड़े पैमाने पर कफ या पित्त का निर्हरण किया जाता है वह भी वमन या विरेचन विधियों द्वारा तब शरीर बहुत ज्यादा कमजोर हो जाता है उस कमजोर शरीर को साधारण अन्न पान लाने के लिए कुछ समय लगता है इस समय अवधि में शरीर को बहुत ही हल्का आहार दिया जाता है इस हल्के आहार के देने का भी एक तरीका होता है शुरू के दो आहार बिल्कुल ही हल्के पेया के दिए जाते हैं उसके बाद उससे थोड़ा अधिक गहरा आहार दिया जाता है इस प्रकार 7 दिन के संसर्जन क्रम के पश्चात रोगी को साधारण आहार में लाया जाता है ।
इसी समय अवधि को संसर्जन क्रम या पश्चात कर्म कहा जाता है । इन कुछ दिनों की अवधि में रोगी को तरल आहार के साथ खिचड़ी इत्यादि दी जाती है । इस प्रकार पूर्व कर्म प्रधान कर्म और पश्चात कर्म को एक साथ मिलाकर पंचकर्म कहा जाता है ।
आज के भागदौड़ भरे जीवन में मनुष्य यदि समय निकालकर रितु अनुसार अपने शरीर से उभरे दोषों को पंचकर्म की विधि अनुसार समय-समय पर निरहरण करवाते रहें तो तब वह एक हेल्थी लाइफ जी सकता है, इसीलिए पंचकर्म आयुर्वेद का गहना है ।

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